जब कभी किसी गली या सड़क से गुज़रता हूं, ख़ुद को वहाँ के घरों की खिड़कियों से अंदर झाँकता हुआ पाता हूँ.
अंदर क्या दिखता है?
क्या ही तो दिखता होगा साहब. मैं हूँ ज़मीन पर, और देख रहा हूँ पहली-दूसरी मंज़िल के कमरों में.
दिखते हैं, बल्ब, ट्यूबलाइट, पंखे, छत, दीवार, मचानों पर रखे सूटकेस और दीवारों के रंग.
इन्हीं सब को देखते-देखते मैं गढ़ता हूँ एक दुनिया, कुछ ज़िंदगियाँ, उस घर के बाशिंदों की.
क्या बच्चों को पढ़ने के लिये खाने की मेज़ पर कोहनियाँ टिका कर बैठना होता है? या बिस्तर पर ही पालथी मारकर बैठते हैं, या टीवी के सामने ही?
जब पापा घर आते हैं, तो क्या घंटी बजाते हैं? या ख़ुद की चाबी से ख़ुद ही दरवाज़ा खोल लेते हैं? उनके आने की आवाज़ से क्या बच्चे उछल कर दरवाज़े की ओर लपकते हैं, या कोई पालतू कुत्ता है जो उनपर लपकने को तैयार बैठा है, या सभी कोई मैच ही देख रहे होते हैं, और कहते हैं, रोज़ तो आते हैं, नया क्या है?
खाने की ख़ुशबू क्या घर के कोने-कोने में जाती है, या माँ को बार-बार चिल्लाना पड़ता है, कि खाना लग गया है, आओ जल्दी?
क्या इस घर में बिजली गुल होती है? और होती है, तो कितनी मोमबत्तियाँ जलाई जाती हैं? एक ही जिसके इर्द-गिर्द पढ़ाई, सब्ज़ी काटना, कशीदाकारी सब होता है, या हर कमरे को अलग बत्ती मिलती है. या फिर इन्वर्टर जैसा कोई साधन है घर में, जिससे ये ही पता न चले कि बिजली रानी रूठी हैं?
इस घर में कुत्ते की प्यारी सी दुम हिलती है जब दूध से भरा कटोरा उसके सामने रखा जाता है, या एक बिल्ली का बच्चा है, जो डिब्बों में अपनी एक दुनिया बना लेता है, और उन्हें ही अपना क़िला मान प्रहरी सा उनकी रखवाली करता है? या फिर यहाँ एक शीशे का हौदा है, जिसमें सुंदर-सुंदर नन्ही-नन्ही मछलियाँ सारा दिन अथक तैरती रहती हैं, या एक पिंजरा है, जिसमें चिड़ियां चूं-चूं-चीं-चीं करते-करते पिंजरे के इस तार से उस तार पर फुदकती-बैठती हैं?
इस घर में सोते वक़्त बच्चों को कहानी कौन सुनाता है? नानी, दादी, माँ, या पापा? या बच्चे इतने सयाने हैं कि ख़ुद ही टीवी पर देखा दिन भर का हाल बड़ों को सुनाते हैं?
शाम को बैठक जमती है या नहीं, जिसमें छुटकी नयी साइकिल लेने की फरमाइश करती है, और मुन्ना ट्रेकिंग ट्रिप पे जाने की ज़िद करता है? और ये सब सुनकर माँ-पापा उन्हें डपटते हैं, या ये कहते हैं, कि देखेंगे, अच्छे नंबर लाओ पहले?
कोई है इस घर में जो सचिन बनने के सपने देखता है, या कोई है जिसे डांसर बनने की धुन सवार है? या कि सब सपने बाद में, पहले पढ़ाई करो, ये सब करने को ज़िंदगी पड़ी है की नसीहत मिलती है उन्हें?
ऐसे ही कितना कुछ सोचता हूँ, जब भी किसी खिड़की के पास से गुज़रता हूँ. दस-पंद्रह सेकंड को एक नयी दुनिया, एक कोई और ज़िंदगी सोचता हूँ. शायद कल्पना करता हूँ उस सब की जो मैंने नहीं भोगा, या उस सब को याद करता हूँ, जो मेरा हर रोज़ हुआ करता था, और आज यादों में कहीं छुपा पड़ा है.
चलिये अब अगली खिड़की पर, दीवारें पीली हैं, और अलमारी के ऊपर शायद कुछ डब्बे रखे हैं, और पंखा धीमे-धीमे चल रहा है…