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Hindi My Fiction

मच्छर, जैसे समाज है

जैसे आप अपनी ज़िंदगी जी रहे होते हैं, और भरसक कोशिश करते हैं, कि जो जीवन में करणीय है वह करते रहें, वैसे ही सोने की कोशिश कर रहा हूँ, क्योंकि अब रात का समय है, सोना चाहिये।

और जैसे आम ज़िंदगी में ‘समाज’ कभी कान के पास भिनभिनाता कर तंग करता है, कभी इधर, कभी उधर दंश मारकर उड़ जाता है, और मोटे तौर पर हमारा ख़ून चूसता है, ये बेचारे मच्छर भी वही करते हैं।

और जैसे ‘समाज’ कोई एक इंसान नहीं होता, एक बेनाम, faceless mass होता है, मच्छर की भी individual पहचान कहाँ होती है? उन्हें भी हम बस मच्छर ही कहते हैं, मसलन ‘मच्छर ने काटा’, जैसे ‘लोग कह रहे थे’।

आजतक हमें कोई ये समझा नहीं पाया कि भगवान ने मच्छर बनाये क्यों. हमारा faceless वाला समाज क्यों exist करता है, ये बात भी कभी पल्ले नहीं पड़ी.

और जैसे ज़िंदगी में आप समाज को नज़रअंदाज़ करने की भरसक चेष्टा करते हैं, लेकिन समाज पूरी बेशर्मी के साथ लगा हुआ होता है, खून चूसने, कान के आसपास भिनभिनाने, और आपको मोटे तौर पर तंग करने में, वैसे ही मैंने खूब चेष्टा की, कि नींद के साथ पूरी दोस्ती करूँ, मच्छरों को नज़रअंदाज़ करूँ, पर ये कमबख़्त डटे हुए हैं, जहाँ-तहाँ काटते हुए, इस बात का पूरा इंतज़ाम करते हुए, कि मैं और भले कुछ कर लूँ, पर सो न पाऊँ, और सुबह ऐसे कहूँ, कि ‘यार मच्छरों ने सोने नहीं दिया’, जैसे अक्सर कहा जाता है, ‘समाज के सामने मुँह दिखाने लायक तो रहना चाहिये (यानि अपनी न करो, सबकी करो)’।

और जैसे हम ज़िदगी में ज़रूरी चीज़ें बाजू में रखकर समाज का क्रिटीक लिखने बैठ जाते हैं, वैसे ही मैं भी मच्छर के दंश की पीड़ावश सोना भूलकर ये अनाप-शनाप लिखने बैठ गया हूँ।

Disclaimer: मच्छर-गण क्षमा करें, आपकी ‘लोगों’ से तुलना कर दी है। आधी नींद में ऐसा ही कुछ लिख पाता हूँ। इसकी ज़िम्मेदारी आप ही की है। और जैसे समाज को कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप उनके बारे में क्या सोचते-बोलते हैं, वैसे ही मुझे भरोसा है मच्छर भी मेरा लिखा कुछ नहीं पढ़ेंगे।

(Image courtesy: www.noeticart.com)

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Branding & Advertising What's wrong? WTF

Notes on CommunityMatrimony TVC, or Let’s Be Regressive On National Television (1/2)

You might have seen this ad in the last couple of years on the television, and would’ve either cringed at it, ignored it, or (horror of horrors!) admired it and used their services.

Here’s my take on it (first of a two-post long ‘rant’):

The strategy/advertising/marketing/craft angle

Idea: Give them what they want
They want to “save their honour which their children don’t care about”. Let’s give them that. Let’s reinforce their perceptions. Let’s not fight anything. Let’s approach the parents, because they are the ones who give us listings in the first place. Let’s not approach a matrimony ad from the angle of the people whose life will be affected by the marriage, because we need to strengthen our buyers‘ idea that the end-users are not capable of taking the right decision, or are anyways on the “wrong side”. And that it is the right & duty of the parents to choose the life partner of their children, and whatever choice the said children have is not important for the overall happiness of the overall family.

Approach:
Classic before & after.
Before: Daughter was seen in public with undesirable different-caste boy.
Problem.
Solution steps in: CommunityMatrimony representative.
After: Photograph of a happy daughter happily married to decent same-caste boy. Relaxed parents. Please also note that the girl was happy in both the before & after scenarios. Our product does not affect the happiness of the end-user. It’s only the regressive parents we care about, and we’ve provided them (though in a simplistic process) with much-needed (though debatable) “happiness”.

Naming disaster:
As generic as it can be. It’s not an ownable name (only an ownable domain name). It’s a descriptor rather than a name. And then there are the various variants of it – the ones you are expected to use – like loharmatrimony.com in my case. Or do I use biharimatrimony.com? Who the hell is going to tell me that, huh?
Also, notice the smart usage of the euphemistic, almost modern social-economy word “community” instead of what they meant: “caste”.

The Execution
The acting is second-rate, the dubbing is third rate, the expressions are… well, the less we talk about it the better. The scripting/storytelling is anyway nothing to write home about.

Now on to the real WTF moment:
The enemy here, is not germs, pollution, old age, bad style, inefficiency, body odor, tooth decay, dandruff, stains, cholesterol. The enemy is other human beings, another community, and of course, our own children.

This ad takes just the opposite route from ‘catch ’em young’, where advertisers tailor their messages towards children so that they get early-in-their-life adopters (who can be addicts later on), or ads where the decision maker is an adult but the message is so tailored that their kids get influenced and then coerce them into buying that brand. Here, it’s just the opposite – attract the parents, because

  1. most marriageable youngsters would not be caught dead trying to find a life partner online, and
  2. in India, the society and parents have a sort of entitlement to choose any person’s life partner on the pretext of “wanting the best for our kids”, even though their prime concern is “is the other person from our community or not?”.

This concern is what CM taps. Do they say “we’ll find you an able suitor”? Or, “we’ll find someone who’ll gel well with your daughter”? Or, “your daughter will like him at first glance”? No. All they say is, “why let your daughter stay friends with that other caste guy she likes, when we can help you find a complete stranger (whom you can call your own because of his caste) and forcing her to marry him instead?”.

Another post about the societal implications coming soon…

I’ll be waiting for your comments 🙂

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News WTF

Dress control

UP colleges to ban jeans, set dress code. The people behind this think this will help ‘strengthen discipline’ and check display of ‘indecent clothes’ worn by some of the college students.

If some students are wearing indecent clothes, you can outlaw indecent clothing. Why target jeans – which covers legs? How does jeans become ‘indecent clothing’? Is it because men get dirty thoughts when they see a girl wearing jeans? Some people get more turned on by seeing a woman dressed in saree. So would they demand that women not be allowed to wear sarees?

The other argument is that this will prevent rapes from happening. So this puts the blame for rape on the women themselves – dress stylishly and we will rape you. Oh wait, we won’t rape you, but somebody else will, and I would not bother with controlling that other person. We would rather control the women and how they dress.

Not much different from the approach religious authorities take towards women – dress modestly, and you will be saved from being raped.

On the other hand, Nicholas Sarkozy’s stand of banning burkhas in France is also a similar decision, though in the other direction. When will the people in power give up the illusion that they can and need to dictate what choices people can make in their own personal space? Why can’t the principals of UP understand that the problems of eve-teasing and rapes etc is a product of a sick mentality arising out of too much control and why can’t Sarkozy treat the burkha as another piece of clothing, and respect the choice of women who want to wear it without coercion?

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Hindi WTF

सदी क्या हुई है भाईसाहब?

किस युग में रहते हैं आप? मुझे लगता था इक्कीसवीं सदी चल रही है. आजकल थोड़ा शक होने लगा है. टीवी पर समाचार चैनल वाले यूं ही परेशान करे बैठे हैं – स्वर्ग का द्वार, रावण की मम्मी, फिल्मी गाने से आकर्षित होने वाले भूत तो हम देख चुके हैं. पर टीवी पर शापिंग वाले प्रोग्राम भी पीछे नहीं रहे. बेजन दारूवाला के राशिफल, और नक्षत्र वाले पत्थर तो हम देख ही रहे हैं, पर अगर कोई ये सब देखता है तो वक्त की बर्बादी के अलावा मुझे नहीं लगता कोई और नुकसान हो रहे हैं.

लेकिन आजकल एक नई ऑफरिंग आई है टेलि-मार्केट में – नज़र से बचाव! फिल्मों ने हमें इसी एक संभावना के बारे में अवगत कराया था कि नज़र से प्यार होता है और शायरी की भाषा में नज़र से लोग घायल होते हैं और मेटाफॉर में मर जाते हैं. लेकिन “बुरी नज़र”, उसके पीछे की बुरी नीयत और उससे होने वाले नुकसानों के बारे में मां, चाची-ताई वगैरह के अलावा किसी और से नहीं सुना था. बेशक घर में कोई नवजात बहुत रोता था, तो नज़र की बात ज़रूर उठती थी, और ये भी चर्चा होती थी कि किस नासपीटे की नज़र लगी होगी. पर सिर्फ ज़िक्र भर होता था. हम उसे विलेन बनाकर झगड़ने नहीं लगते थे – आखिरकार दो पीढ़ियों से शहर में रहने का असर तो होगा, भले ही हम आज भी “नज़र” जैसी चीज़ों पर विश्वास कर रहे हैं. और एक लेवल पर नज़र की बात होती रहती है – यूंही कहना कि नज़र लगी है किसीकी, कहने का मतलब कि वो इंसान तारीफ़ तो कर गया, पर मन ही मन जल भुन रहा होगा. उसकी इस नज़र से हमें असल में नुकसान होगा, ये तो हम शायद सोचते भी नहीं आजकल.

पर टीवी के टेली-व्यापारी चाहते हैं कि हम सोचें. आजकल नज़र को इतनी गंभीर समस्या के तौर पर पेश कर रहे हैं, मानो अगर हर इंसान के पास ये नज़र-शोधक तावीज़ नहीं हों तो बाकी दुनिया सिर्फ अपनी आंखों से देख-देखकर सभी को बीमार, कंगाल और अपाहिज बना देगी. ये दिखाने के लिए जो तस्वीरें आती हैं टीवी पर, उनमें आंखों से निकलती किरणें देखकर सुपरमैन और नागराज कामिक्स की याद आ जाती है.

इतना बुरा नहीं लगता, अगर इतनी बेशर्मी से इस दकियानूसी और पैरानॉइड विचार को बढ़ा चढ़ा कर दर्शक के मन में स्थापित करने की कोशिश नहीं होती कि सारी दुनिया के सारे लोग, खासकर वो जो आपके करीब हैं, आपका बुरा ही चाहते हैं. कि आपके सब दुख-तकलीफों की जड़ दूसरे लोग हैं, और उनमें ये दैवी शक्ति है कि सिर्फ देखकर और बुरा चाहकर आपका बुरा कर सकते हैं. और इतना बुरा कर सकते हैं कि जब तक आप यह चमत्कारी तावीज़ नहीं खरीदते, तब तक आपकी तकलीफें दूर नहीं होने की. वही तावीज़ जो दस साल पहले टूरिस्ट तीर्थस्थानों की दुकानों में बच्चे पांच-पांच रुपये में खरीदते थे, बस खेलने और देखने के लिए. आजकल इन खिलौनों में दैवी शक्तियां आ गई हैं, आपको दुनिया के सबसे बड़े खतरे से बचाने के लिए!

टीवी भी क्या करे? एक मीडियम ही तो है. इसी टीवी पर नैशनल जियोग्राफिक के कार्यक्रम देखता हूं, और इसी टीवी पर दुनिया के एक हिस्से को पंद्रहवीं सदी की ओर जाते देखता हूं. शायद यही है वह भारतीय संस्कृति जिसके लिए इतनी मारपीट चालू है.