पढ़ने की आदत बचपन से ही लगी, थैंक्स टू हमारे दोनें चाचाजी, जिन्हें प्यार से हम मंझले और छोटे पापा कहते हैं.
और कलकत्ते में रहने वाला पढ़ाकू बालक जनवरी-फरवरी के पुस्तक मेले से अनभिज्ञ रह सकता है भला?
बरसों तक हर बरस कलकत्ते के प्रचण्ड पुस्तक मेला, उर्फ़ बोई मैला, उर्फ़ बुक फेयर में लिटरली खाक छानी, क्योंकि उन दिनों ये धूल से लबालब कलकत्ता मैदान में आयोजित हुआ करता था.
और इसी मेले में एस्ट्रिक्स, टिनटिन, आर्चीज़, और चमकीली विदेशी किताबों के साथ एक छोटे-से हिंदी कोने में पाँच-छ: दुकानों पर हिंदी की किताबें बाँचने और खरीदने की लत पड़ी. उन्हीं दुकानों में से एक था राजकमल प्रकाशन. किताबों और लेखकों की मेरी पसंद की गहराई नापी, तो पाया कि सारा मेला एक तरफ और राजकमल का स्टॉल एक तरफ. साल-दर-साल मेले से आने वाले झोलों में राजकमल की किताबें ही आधी जगह लेती रहीं.
आज भी, कलकत्ते वाले मकान में भी, और यहाँ बंबई में मेरे हर घर के बदलाव पर मेरे साथ फिरने वाली मेरी निजी लाइब्रेरी में भी अधिकतर किताबें राजकमल की ही होंगी.
खैर, लंबी रही भूमिका. तो आज की डाक से मुझे मिला एक प्यारा तोहफा, राजकमल के दफ्तर से, जो कि आज मेरे रोमांच का कारण बना हुआ है. तोहफे में है, उनके द्वारा प्रकाशित किताब, वंदना राग की हिजरत से पहले, क्योंकि उस के कवर पे जो गुलमोहर के फूल की तसवीर है, वह खाकसार की खींची हुई है, एक प्रति रवीश कुमार की लप्रेक किताब, इश्क़ में शहर होना, क्योंकि मानार्थ, और एक चेक, जो कि उस गुलमोहर के फूल के सदके है.