सुबह-सुबह चायवाले को आवाज़ देने निकला तो देखा सामने दुबे जी के मकान के आगे पुलिस खड़ी है. होगा कोई चक्कर. ये प्रेस वाले तो ऐसे लफड़ों में फंसते ही रहते हैं.
“इ धरिये चाय. और कल तक का दू सौ बीस रुपिया हुआ है.”
“अच्छा. शाम को दे दूंगा.”
“अरे भाई मुझे भी देता जा, ये ले एक चाय के पाँच रुपये”, मेरे पड़ोस की खोली के मिस्टर मदन बोल पड़े. “सुबह-सुबह बवाल हो गया दुबे जी के घर, पता है आपको?”, मुझसे मुखातिब होकर वे बोले.
“कैसा बवाल भई?”
“अरे उनके अखबार में कल एक चुटकुला छपा था. उसी को लेके कुछ लोगों का एक झुण्ड आया था सफाई मांगने.”
“कोई धार्मिक माइनोरिटी थी?”
“ना.”
“किसी जाति-विशेष के उपर कुछ उल्टा-सीधा लिख दिया?”
“नहीं साहब.”
“कोई राज्य… शहर वाले. ताल्लुके.”
मदन बाबू सिर्फ ना में सर हिलाते रहे, मानों मैं कोई मज़ेदार पहेली बूझ नहीं पा रहा.
“अच्छा, अपंग? कैंसर पीड़ित? छि:-छि: ऐसे अभागों पे चुटकुले कोई छापता है अखबार में?”
“अरे नहीं साहब, ऐसा कोई नहीं था.”
“फिर कौन हो सकते हैं भाई? मुझे और कुछ नहीं सूझता.”
“हरी कार चलाने वाले लोग आये थे. चुटकुले में एक हरी कार के मालिक को थोड़ा बेवकूफ-सा बताया गया था. बोल रहे थे, हम पर कटाक्ष करके अच्छा नहीं किया. दुबे जी बेचारे को माफी मांगनी पड़ी”, चाय पी चुके मदन बाबू मंद-मंद मुस्कराते हुए अपने कमरे में तशरीफ ले गये.