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Hindi Literature

वागर्थ मिल गया!

हिन्दी साहित्य पढ़ते हैं? हां? कमाल है! कम लोग बचे हैं ऐसे. अरे मज़ाक कर रहा हूं!

ऐसा नहीं है. काफी हिन्दी साहित्य प्रेमी हैं आज भी, और इंटरनेट पर तो बहुत हैं. इतने सारे हिन्दी के ब्लॉग भी हैं.

पर एक कमी खलती रहती है – एक अच्छे हिन्दी मासिक की. धर्मयुग और पराग तो जाने कहां इतिहास में खो गये. एक कादंबिनी भी किसी स्टैंड में मिले, किसी में नहीं. लाइफस्टाइल मैगज़ीन और महिलाओं की हिन्दी पत्रिकाएं कहीं ज़्यादा बिकती हैं, बेशक.

जब कलकत्ते में था, कलकत्ता पुस्तक मेले का खास मुरीद था, और जिस ज़माने में ब्लाग का आविष्कार नहीं हुआ था, और यूनिकोड के प्रचलन से कहीं पहले जब मैं खास फॉण्ट की मदद से एक हिन्दी साहित्य की वेबसाइट चलाता था, उस ज़माने में भारतीय भाषा परिषद से परिचय हुआ. और यह पता चला कि आज भी हिन्दी साहित्य की दुनिया में कलकत्ता की महत्ता हैं, बेशक उतनी न हो जितनी ‘निराला’ और ‘मस्ताना’ के काल में थी. परिषद की मासिक पत्रिका वागर्थ से भी मैं तभी परिचित हुआ.

साहित्य, कला, और तकनीकी गुणवत्ता, सभी में वागर्थ अपने समकालीन हिन्दी मासिकों से कहीं आगे लगा मुझे. उस दिन से जनाब वागर्थ के फैन हुए. अपने घर में भी दो सब्स्क्रिप्शन्स लगवा दिए. और फिर कलकत्ते से रफू-चक्कर हो गये.

कभी-कभार कलकत्ते का चक्कर लगाते हुए किसी चाचा के घर जाना हुआ तो Reader’s Digest के साथ वागर्थ भी पढ़ता.

आज पता नहीं कैसे कुछ हिन्दी ब्लॉग पढ़ते हुए वागर्थ की याद आ गई, तो मन में सवाल उठा – कहीं वह भी तो और अच्छी हिन्दी पत्रिकाओं की तरह डब्बे में… गूगल देव से विनती की, और पाया कि vagarth लिखो तो पहला उत्तर भारतीय भाषा परिषद के साइट का लिंक ही आता है. क्लिक किया और पाया कि वागर्थ न केवल ज़िन्दा है, बल्कि हर माह बाकायदा प्रकाशित भी हो रहा है!

और सबसे आश्चर्य की बात यह थी, कि पूरे के पूरे संस्करण PDF रूप में मुफ्त उपलब्ध हैं. सन् 2010 के ही सही.

मैं तो अब इस साइट पर ही व्यस्त रहने वाला हूं. आपका क्या ख़याल है?

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My Fiction

Recycled: Spooky?

Surrounded by the dilemmas of whether recycling my blog posts from my older blog here is inherently good or evil, I post this. Good, because it’s recycling. Because, let’s face it, recycling is good. Right? Bad because it wastes pixels. The content is already on the old blog, why post it here again? Well, while the dilemma continues, you can proceed to enjoy the following.

… you wake from a bone-chilling nightmare, to find yourself sleeping on the middle berth of a sleeper compartment on a train from Howrah. Still shivering under the nightmare’s effect, you try to wake someone up so that atleast the fear can be reduced if the dream can’t be shared, but no one wants to be bothered at this hour.

You sit for some minutes trying to figure out the storyline of the nightmare or trying to forget the gory details… when you hear nature’s call. Time to go to the loo. So you step down, and head towards the end of the coach, counting the number of compartments you cross in the way so that you return to your own berth… 1… 2… 3… 4… 5.

After answering the call, you return the same way… 1… 2… 3… 4… 5… and the berth you were sleeping in seems to be occupied… you move closer to wake him up, when you notice the person’s face… and you realise… it is YOUR body!!!

Hypnos